संस्कृत के सरल सुभाषित (अर्थ सहित) | विद्या सुभाषित संस्कृत सुभाषित
संस्कृत सुभाषित हिन्दी मे अर्थ सहित – नमस्कार सुधबुध में आपका स्वागत है, इस पोस्ट में हमने संस्कृत सुभाषित (Subhashita with Meaning) अर्थ सहित सलंगन किये है. सुभाषित अक्सर हमारे किसी न किसी कार्यक्रम में उच्चारण होता रहता है. सुभाषित संघ के कार्यकर्मों में अक्सर इस्तेमाल किये जाते है.
आईये पढ़ते है संस्कृत के सरल सुभाषित अर्थ सहित :
सुभाषित: अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
अर्थ: तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
सुभाषित: क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत्।क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥
अर्थ:क्षण-क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए। क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।
सुभाषित: सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः।।
अर्थ: सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है।
सुभाषित: सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्। यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्।।
अर्थ: यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।
सुभाषित: कस्यैकान्तं सुखम् उपनतं, दु:खम् एकान्ततो वा। नीचैर् गच्छति उपरि च, दशा चक्रनेमिक्रमेण॥
अर्थ: किसने केवल सुख ही देखा है और किसने केवल दुःख ही देखा है, जीवन की दशा एक चलते पहिये के घेरे की तरह है जो क्रम से ऊपर और नीचे जाता रहता है।
सुभाषित: आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते। नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥
अर्थ: आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः इसको व्यर्थ में नष्ट कर देना महान भूल है ॥
सुभाषित: चिता चिंता समाप्रोक्ता बिंदुमात्रं विशेषता। सजीवं दहते चिंता निर्जीवं दहते चिता ॥
अर्थ: चिता और चिंता समान कही गयी हैं पर उसमें भी चिंता में एक बिंदु की विशेषता है; चिता तो मरे हुए को ही जलाती है पर चिंता जीवित व्यक्ति को मार देती है।
सुभाषित: परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा। आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति॥
अर्थ: दूसरों के बारे में बोलने में सभी हमेशा ही कुशल होते हैं पर अपने बारे में नहीं जानते हैं, यदि जानते भी हैं तो गलत ही जानते है।
सुभाषित: परिवर्तिनि संसारे मॄत: को वा न जायते। स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्न्तिम्॥
अर्थ: इस बदलते संसार में कौन ऐसा है जो जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है। जन्म लेना उसका ही सफल है जिससे उसका वंश उन्नति को प्राप्त हो॥
सुभाषित: आयुषः खण्डमादाय रविरस्तमयं गतः । अहन्यहनि बोध्दव्यं किमेतेत् सुकृतं कृतम् ।।
अर्थ: अपनी आयु के एक दिन सूरजके अस्त होने पर कम हो जाता है । यह जानते हुए हरेक को दिनभर के अपने किये हुए नेक काम पर विचार करना चाहिये।
सुभाषित: लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । प्राप्ते तु षोडशे वर्शे पुत्रे मित्रवद् आचरेत् ॥
पहले पॉच साल बच्चों को बहुत लाड़-प्यार करो, बाद के दस साल आत्मसंयम की शिक्षा जरुरत पडे तो दण्ड देकर भी देना, सोलह साल का होते ही उसे अपना मित्र बनाओ।
सुभाषित: चिन्तायास्तु चितायास्तु बिन्दु मात्रम् विशेशतः । चिता दहति निर्जीवम्, चिन्ता दहति जीवितम् ॥
चिता ओर चिंता दोनो एक जैसे ही है, फर्क सिर्फ बिंदु का है, चिता मृत देह को जलाती है, चिंता जीवित शरीर को जलाती है।
सुभाषित: मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
मन हि मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है ।
सुभाषित: यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति | काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम् ||
जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है, अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता ?
अर्थात- व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक है जब उसके जीवन से अन्य लोगों को भी अपने जीवन का आधार मिल सके। अन्यथा तो कौवा भी भी अपना उदर पोषण करके जीवन पूर्ण कर ही लेता है।
सुभाषित: द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दॄढां शिलाम् | धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ||
दो प्रकार के लोगों को बड़े पत्थर से बांधकर गहरे समुन्द्र में फेंक देना ही उचित है। एक तो वह जो धनवान होते हुए भी उदारतापूर्वक दान न करता हो, दूसरा वह जो दरिद्र होते हुए भी श्रम न करता हो।
सुभाषित: अङ्गणवेदी वसुधा कुल्या जलधि: स्थली च पातालम् | वाल्मिक: च सुमेरू: कॄतप्रतिज्ञाम्प;स्य धीरस्य ||
अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने वाले धीर व्यक्ति के लिए यह वसुधा (पृथ्वी) एक बगिया के समान होता है , समुद्र एक नहर के समान होता है (जब चाहे तैर कर पार कर लो), पाताल लोक एक मनोरंजन स्थल के समान होता है और सुमेरु पर्वत एक चींटी के घर के समान होता है ।अतः मनुष्य को दृढ़प्रतिज्ञ एवं धीर-गम्भीर होना चाहिए।
सुभाषित: श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेत: तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीर: | श्रेयो हि धीरोभिप्रेयसो वॄणीते प्रेयो मन्दो षोगक्षेमाद् वॄणीते ||
श्रेय अर्थात कल्याणकारी मार्ग सद्गति का मार्ग, प्रेय अर्थात मन को प्रिय लगने वाले इन्द्रिय भोगों का मार्ग है। ये दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं, श्रेष्ठबुद्धि वाले लोग श्रेयपथ को चुन लेते हैं तथा मंदबुद्धि वाले लोग प्रेयपथ को चुन लेते हैं। मनुष्य विवेकशील है, अत: उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह सही मार्ग को चुने। मनुष्य शब्द को निरुक्त में परिभाषित किया गया है. ‘मत्वा कर्माणि सीव्यति इति मनुष्य:’ अर्थात विचार पूर्वक जो कर्म करता है वह मनुष्य है. अत: कल्याणकामी मनुष्यों को श्रेयपथ को अपनाना चाहिए।
सुभाषित: मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं मुखे । हठी चैव विषादी च परोक्तं नैव मन्यते ॥
अर्थ: मूर्खों की पांच निशानियां होती हैं, अहंकारी होते हैं, उनके मुंह में हमेशा बुरे शब्द होते हैं,जिद्दी होते हैं, हमेशा बुरी सी शक्ल बनाए रहते हैं और दूसरे की बात कभी नहीं मानते.
सुभाषित: आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् । सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ॥
अर्थ: जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुवा नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है ।
सुभाषित: नीर क्षीर विवेके हंस आलस्यम् त्वम् एव तनुषे चेत् । विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क: ॥
अर्थ: अरे हंस यदि तुम ही पानी तथा दूध भिन्न करना छोड दोगे तो दूसरा कौन तुम्हारा यह कुलव्रत का पालन कर सकता है ? यदि बुद्धि वान् तथा कुशल मनुष्य ही अपना कर्तव्य करना छोड दे तो दूसरा कौन वह काम कर सकता है ?
सुभाषित: सर्वं परवशं दु:खं सर्वमात्मवशं सुखम् । एतद्विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदु:खयो:
अर्थ: दुसरोंपे निर्भर रहना सर्वथा दुखका कारण होता है। आत्मनिर्भर होना सर्वथा सुखका कारण होता है। सारांश, सुख–दु:ख के ये कारण ध्यान मे रखें।
सुभाषित: यस्य भार्या गॄहे नास्ति साध्वी च प्रिायवादिनी। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गॄहम् ॥
अर्थ: जिस घर में गॄहिणी साध्वी प्रावॄत्ती की न हो तथा मॄदु भाषी न हो ऐसे घर के गॄहस्त ने घर छोड कर वन में जाना चाहिए क्यों की उसके घर में तथा वन में कोइ अंतर नही है !
सुभाषित: अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्रााणत्यागेऽपि संस्थिते । न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन: ॥
अर्थ: जो कार्य करने योग्य नही है इअच्छा न होने के कारणउ वह प्रााण देकर भी नही करना चाहिए । तथा जो काम करना है इअपना कर्तव्य होने के कारणउ वह काम प्रााण देना पडे तो भी करना नही छोडना चाहिए ।
सुभाषित: परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नॄणाम् धर्मे। स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित् सुमहात्मन:
अर्थ: दूसरोंको उपदेश देकर अपना पांडित्य दिखाना बहौत सरल है। परन्तु केवल महान व्यक्तिही उसतरह से (धर्मानुसार)अपना बर्ताव रख सकता है।
सुभाषित: अमित्रो न विमोक्तव्य: कॄपणं वणपि ब्राुवन् | कॄपा न तस्मिन् कर्तव्या हन्यादेवापकारिणाम्
अर्थ: शत्रु अगर क्षमायाचना करे, तो भी उसे क्षमा नही करनी चाहिये| वह अपने जीवन को हानि पहुचा सकता है यह सोचके उसको समाप्त करना चाहिये।
सुभाषित: वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्यय:। अथैवमागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि
अर्थ: जब काल विपरीत हो, तब शत्रुको भी कन्धोंपे उठाना चाहिये। अनुकूल काल आनेपर उसे जैसे घट पथर पे फोड जाता है, वैसे नष्ट करना चाहिये।
सुभाषित: अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥
अर्थ: यह मेरा है, वह उसका है जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।
सुभाषित: सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्। यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्।।
अर्थ: यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। श्लोककर्ता नारद के विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।
सुभाषित हिन्दी मे अर्थ सहित
सुभाषित: क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत्। क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥
अर्थ:क्षण-क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए। क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।
सुभाषित: दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते | यादॄशं भक्षयेदन्नं जायते तादॄशी प्रजा ||
जिस प्रकार दीपक अंधकार का भक्षण कर उजियारा करता है परन्तु जल कर कालिख भी छोड़ता है उसी प्रकार जैसा अन्न हम खाते हैं उस का असर हमारे बच्चों पर भी पड़ता है।
सुभाषित: न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति | हविषा कॄष्ण्मत्र्मेव भुय एवाभिवर्धते ||
निश्चय ही कामनाएँ, काम के उपभोग से कभी शांत नही होतीं | बल्कि जैसे अग्नि मे आहुति डालने से अग्नि बदती है, उसी प्रकार काम के उपभोग से कामनाएँ भी बदती हैं |
सुभाषित: अस्थिरं जीवितं लोके अस्थिरे धनयौवने | अस्थिरा: पुत्रदाराश्र्च धर्मकीर्तिद्वयं स्थिरम् ||
इस जगत में जीवन सदा नहीं रहने वाला है, धन और यौवन भी सदा नहीं रहने वाले हैं, पुत्र और स्त्री भी सदा नहीं रहने वाले हैं। केवल धर्म और कीर्ति ही सदा-सदा के लिए रहते हैं।
सुभाषित: आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते | नीयते तद् वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ||
सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नही मिलता | ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे है।
सुभाषित: दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम्। दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम्।।
रातभर जागने वाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है। जो चलकर थक गया हो, उसे एक योजन (चार मील) का अंतर भी बहुत दूर लगता है। उसी प्रकार धर्म का जिन्हें ज्ञान नही है उन्हें जिन्दगी बहुत दीर्घ लगती है।
सुभाषित: आचाराल्लभते ह्मयु: आचारादीप्सिता: प्राजा:। आचाराद्धनमक्षय्यम् आचारो हन्त्यलक्षणम्।।
अच्छे आचरण से दीर्घ आयु, श्रेष्ठ सन्तती, चिर समृद्धि प्राप्त होती है, तथा अपने दोषों का भी नाश होता है।
सुभाषित: यथा हि पथिक: कश्चित् छायामाश्रित्य तिष्ठति । विश्रम्य च पुनर्गच्छेत् तद्वद् भूतसमागम: ॥
जिस प्राकार यात्रा करनेवाला पथिक थोडे समय वॄक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद आगे निकल जाता है। उसी समान अपने जीवन में अन्य मनुष्य थोडे समय के लिए उस वॄक्ष की तरह छांव देते है और फिर उनका साथ छूट जाता है।
सुभाषित: मध्विव मन्यते बालो यावत् पापं न पच्यते। यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति।।
जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता, तब तक वह पाप कर्म मधुर लगता है। परन्तु पूर्णत: फलित होने के पश्चात् मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पडते हैं।
सुभाषित: एकेन अपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् | सह एव दशभि: पुत्रै: भारं वहति गर्दभी ||
सिंहनी को एक ही संतान भी है तो भी वह आराम करती है। क्योंकी उसकी संतान उसे भोजन लाकर देती है। परन्तु गधी को दस बच्चे होने पर भी स्वयं भार का वहन करना पडता है। अत: गुणवान आज्ञाकारी संस्कारित ज्ञानी एक ही संतान कुल का नाम रोशन कर देती है वही अधिक संतान क्लेश विवाद का कारण बन जीवन में अशांति का कारण बन जाती है।
सुभाषित: मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणं चिन्तासमं नास्ति शरीरशोषणं। मित्रं विना नास्ति शरीर तोषणं विद्यां विना नास्ति शरीरभूषणं॥
अर्थ: संतुलित जीवन के समान शरीर का पोषण करने वाला दूसरा नहीं है, चिंता के समान शरीर को सुखाने वाला दूसरा नहीं है, मित्र के समान शरीर को आनंद देने वाला दूसरा नहीं है और विद्या के समान शरीर का दूसरा कोई आभूषण नहीं है।
सुभाषित: अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥
यह मेरा है, वह उसका है जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।
सुभाषित: सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्।।
यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।
सुभाषित: सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः।।
– सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है।
सुभाषित: क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत्।क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥
क्षण-क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए। क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।
सुभाषित: अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
सुभाषित: अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्। चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥
अर्थ: तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
सुभाषित: सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्। प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः।।
अर्थ: सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है।
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