गुरु शिष्य बोध कथा – अच्छा होता अगर तू भी सोया रहता
बच्चों के दूसरे की चुगली करने के बुरे संस्कार को किस प्रकार मिटायें और जो हमारी गलती बतायें तो किस प्रकार सुधार लाना चाहिए ? यह सीख देती हुई कहानी बच्चों को जरूर सुनाएँ।
स्वामी सेवानंदजी के दो शिष्य थे – रामानंद और चेतनानंद । ब्राह्ममुहूर्त में उठकर जप-ध्यान, संध्या,शास्त्राध्ययन करना उनका नित्य-नियम था । उनकी तत्परता देख स्वामी जी दोनों शिष्यों से संतुष्ट रहते थे ।
एक दिन रामानंद देर तक सोया रहा । चेतनानंद ब्राह्ममुहूर्त में उठकर अपना नित्य-नियम पूरा करके सेवा में लग गया ।
दूसरे दिन भी रामानंद ब्राह्ममुहूर्त के समय सोता हुआ मिला । इस प्रकार लगातार ३-४ दिन बीत गये।
आखिर चेतनानंद गुरुजी के पास पहुँचा और शिकायत करते हुए बोला : ‘‘गुरुदेव ! रामानंद आजकल प्रातः ईश्वरोपासना करता ही नहीं है । वह तो सोया ही रहता है ।”
गुरुजी बोले : ‘‘अच्छा होता अगर तू भी सोया ही रहता ।
चेतनानंद, स्वामीजी की यह बात सुनकर सकपका गया । वह तो सोच रहा था कि गुरुजी उससे प्रसन्न होंगे, शाबाशी देंगे लेकिन यह क्या, गुरुजी तो नाराज हो गये !
उसने साहस करते हुए फिर से कहा : ‘‘गुरुदेव ! मैं अपने बारे में नहीं, रामानंद के बारे में बात कर रहा हूँ । वह देर तक सोता रहता है, उसके बारे में क्या करना चाहिए ?
गुरुजी : ‘‘मैं रामानंद के बारे में चिंतित नहीं हूँ । मैं तुम्हारे बारे में चिंतित हूँ । मैं कहता हूँ कि तुम भी यदि सोये रहो तो अच्छा ही होता।”
‘‘ऐसा क्यों गुरुजी ? मेरे सोने से किसको लाभ होगा ?
‘‘तुमको ही लाभ होगा । तुम परनिंदा और राग-द्वेष से बचे रहोगे ।”
तब चेतनानंद ने तुरंत अपनी सफाई में कहा : ‘‘मैं निंदा नहीं कर रहा हूँ गुरुजी ! रामानंद सचमुच में ४ दिन से देर तक सोता रहता है । मुझे उसके प्रति द्वेष नहीं है,तभी तो मैं उसकी गलती गुरुजी को बता रहा हूँ जिससे वह सुधर जाय !
‘‘बेटा ! क्या तुमने 4 दिनों में यह जानने की कोशिश की कि रामानंद क्यों देर तक सोता रहता है ? क्या तुमको पता है कि उसे बुखार है ? वह सोया रहता है, ईश्वरोपासना नहीं कर पाता लेकिन किसी की निंदा भी तो नहीं करता ! परनिंदा, परदोष-दर्शन से तो वह बचा हुआ है ! तुम तो परनिंदा के भागी बन रहे हो ।
तुम्हारा कर्तव्य था कि पहले उससे देर तक सोने का कारण पूछते । यदि वह गलत रास्ते जा रहा है तो उसे समझाते । अगर वह फिर भी नहीं मानता तब यह बात उसके सामने मुझसे बोलनी चाहिए थी । तुमने तो ऐसा किया नहीं ।”
चेतानंद ने गुरुजी की कल्याणकारी बात को सकारात्मक भाव से लिया । उसे अपने मन में छिपी खुद को अच्छा दिखाने की वासना और गुरुभाई के प्रति द्वेष की सूक्ष्म भावना दिखने लगी । उसने गुरुदेव से हृदयपूर्वक क्षमा माँगी और रामानंद के सामने भी अपना हृदय निष्कपटतापूर्वक खोलकर रख दिया । इससे दोनों गुरुभाइयों में पहले से भी ज्यादा स्नेह बढ़ गया और उनके आपसी स्नेह और समझदारी की वजह से उन्हें गुरुदेव की प्रसन्नता भी प्राप्त हुई।
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति बदलते हैं फिर भी जो अबदल है, उस आत्मा में ‘मैं’ पने की मधुरता जगी । जीवन्मुक्त महापुरुष की कृपा से शिष्य भी परम वैभव परमात्म-साक्षात्कार को प्राप्त हो गये । धन्य हैं ऐसे सत्शिष्य जो सद्गुरुओं की अनुभूति को अपनी अनुभूति बना लेते हैं !
सीख : हमें भी किसी की शिकायत बिना हकीकत जानें नहीं करनी चाहिए और पहले स्वयं समझाने का प्रयास करना चाहिए,नहीं मानें तब बड़ों को उसके सामने बताना चाहिए । यदि गलती से किसी निंदा हो जाये तो चेतनानंद की तरह उससे क्षमा मांगकर अपना हृदय स्वच्छ कर लेना चाहिए।
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