संत श्री ज्ञानेश्वर महाराज और सामाजिक समरसता
संत श्री ज्ञानेश्वर महाराज तेरहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के एक महान संत–कवि है। वह भागवत संप्रदाय के प्रवर्तक, योगी और दार्शनिक थे। संत ज्ञानेश्वर जी ने भावार्थदीपिका (ज्ञानेश्वरी), अमृतानुभव, चांगदेव पासष्टि, और हरिपाठ में संकलित अभंग ऐसे कई ग्रंथोंकी रचना की है। संत ज्ञानेश्वर ने यह विश्वास पैदा किया कि आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारों को मराठी जैसी प्रादेशिक भाषा के माध्यम से भी व्यक्त किया जा सकता है। इसने वैश्विक लोकतंत्र को अपनाने के लिए सभी क्षेत्रों के लोगों को प्रेरित किया।
संत ज्ञानेश्वर जी का जन्म सन 1275 (भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी, 1332 विक्रम संवत) में पुणे के नजदीक आलंदी नाम के गांव में हुआ| उनके पिताजी का नाम विठ्ठलपंत तथा माताजी का नाम रुक्मिणी था| विठ्ठलपंत का परिवार पवित्र और सदाचारी परिवार के रूप में प्रसिद्ध था|
संत ज्ञानेश्वर जी वैराग्य प्राप्त होने के कारण अपने पत्नी की अनुमति लेकर विठ्ठलपंत काशी चले गए थे और वहां संन्यास की दीक्षा ग्रहण की थी, लेकिन अपने गुरु की आज्ञा के कारन उन्होने फिर एक बार गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया. उसके बाद विठ्ठलपंत के कुल चार बच्चे हुए निवृत्ति, ज्ञानदेव, सोपान और मुक्ताबाई| नाथ पंथ क़े श्री गहिनीनाथ जी ने निवृत्ती को अनुग्रहित किया और वही निवृत्तिनाथ ज्ञानदेव क़े गुरु हो गए, जो उनके बडे भाई भी थे.
संत ज्ञानेश्वर ने संकेत दिया कि ‘ज्ञान की परंपरा सभी मानव जाति की सच्ची विरासत और आधार है‘।
संत ज्ञानेश्वर और उनके तीन भाई–बहनों ने कीर्तन और प्रवचनों के माध्यम से भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। सन 1290 में, संत ज्ञानेश्वर जी ने भगवदगीता पर अपनी अलौकिक टिप्पणी पूरी की जो ‘ज्ञानेश्वरी‘ नाम से प्रसिद्ध है। यहीं पर, उनके गुरु निवृत्तिनाथ के कहने पर, संत ज्ञानेश्वर जी ने अपनी स्वयं का स्वतंत्र ग्रंथ, अमृतानुभव या अनुभावमृत की रचना की। संत ज्ञानेश्वर जी को प्यार से वारकरी संप्रदाय सहित सभी भक्तों द्वारा ‘माउली‘ (माता) कहा जाता है|
संत ज्ञानेश्वर जी ने धर्म की आवश्यक बातों को हटाकर धर्म को कर्तव्य का एक अलग अर्थ दिया। साहित्यिक सृजन के साथ, उन्होंने चंद्रभागा तट पर आध्यात्मिक लोकतंत्र के बीज बोने का सफल प्रयास किया। उन्होंने भागवत या वारकरी संप्रदाय की नींव रखने का अभूतपूर्व काम किया। संत नामदेव, संत गोरोबा कुम्हार, संत सावता माली, संत नरहरि सोनार, संत चोखामेला इत्यादि संतोका अनौपचारिक नेतृत्व संत ज्ञानेश्वर ने किया और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में समानता स्थापित करने का प्रयास किया। इस में से संत नामदेव जी ने पूरे भारत में तीर्थयात्रा की और भागवत धर्म तथा वारकरी संप्रदाय का प्रसार किया।
सन 1296 में, 21 साल की उम्र में, संत ज्ञानदेव जी ने आलंदी में इंद्रायणी नदी के तट पर संजीवनी समाधि की। इस ‘ज्ञान के सूर्य‘ का अस्त होने क़े बाद केवल एक वर्ष के भीतर, उनके भाई–बहन निवृति, सोपान और मुक्ताबाई ने इस दुनिया में अपनी जीवन यात्रा पूरी की।
भागवत धर्म क़े महान उपदेशक संत ज्ञानदेव, एक महान व्यक्ति थे
ज्ञानेश्वरी में संत ज्ञानदेव जी ने लिखा है कि ,
- म्हणोनि कुळ उत्तम नोहावें । जाती अंत्याहि व्हावें ।
- वरि देहाचेनि नांवें । पशूचेंही लाभो ।। (अ. ९ : ४४१)
- ते पापयोनीही होतु कां । ते श्रुताधीतही न होतु कां ।
- परि मजसीं तुकितां तुका । तुटी नाहीं ।। (अ. ९ : ४४९)
- म्हणोनि कुळजातिवर्ण । हे आघवेचि गा अकारण ।
- एथ अर्जुना माझेपण । सार्थक एक ।। (अ. ९ : ४५६)
- जैसें तंवचि वहाळ वोहळ । जंव न पवती गंगाजळ ।
- मग होऊनि ठाकती केवळ । गंगारूप ।। (अ. ९ : ४५८)
- कां खैरचंदनकाष्ठें । हे विवंचना तंवचि घटे ।
- जंव न घापती एकवटें । अग्नीमाजीं ।। (अ. ९ : ४५९)
- तैसें क्षत्री वैश्य स्त्रिया । कां शूद्र अंत्यादि इया ।
- जाती तंवचि वेगळालिया । जंव न पवती मातें ।। (अ. ९ : ४६०)
(भावार्थ – जब तक किसी नाले या नदी का पानी गंगा में विलीन नहीं होता है तब तक नाले के पानी को नाला, नदी के पानी को नदी कहा जाता है, लेकिन जब वही पानी एक बार गंगा में विलीन हो जाता है तब उसी नदी या नाले को गंगा ही कहा जाता है। वैसेही खैर की लकड़ी, चन्दन की लकड़ी या किसी अन्य पेड़ की लकड़ी; यह भेद तब तक रहता है; जब तक उन्हें एक साथ आग में नहीं डाला जाता। आग में प्रवेश करते ही सभी लकड़ी एक जैसी ही हो जाती है। इसी तरह, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अंत्यज और महिलाएं अलग–अलग भेद तब तक मानते है जब तक कि भक्त परमात्मा के साथ एक नहीं हो जाते। इसलिए सर्वश्रेष्ठ जाति, वंश, वर्ण सभी भेद व्यर्थ है।)
समरस यह शब्द संत ज्ञाननेश्वर का पसंदीदा शब्द है। अनुभव से जो आनंद प्राप्त होता है उसे ही समरस कहा जाता है। संस्कार ही समरसता का मूल है। संस्कार मनुष्य में देवत्व को जगाते हैं। ताकि मनुष्य सामने वाले व्यक्ति में ईश्वर को जान सके। संत ज्ञानेश्वर सहित सभी संतों की प्राथमिकता मनुष्य में देवत्व को जागृत करना था। सद्भाव का रास्ता आध्यात्मिकता से होकर जाता है। संत ज्ञानेश्वर जी ने धार्मिक जागरण का काम शुरू किया। वे विरोध की तुलना में समन्वय पर अधिक भरोसा करते हैं। उनकी विचारधारा सांप्रदायिक नहीं है, बल्कि समन्वित और समग्र है।
संदर्भ:
- ज्ञानदेव आणि ज्ञानदेवी – संपादक रा. चिं. ढेरे, श्रीविद्या प्रकाशन, प्रथम आवृत्ती 1991
- आठव: ज्ञानदेवांचा, ज्ञानदेवीचा – डॉ. यू. म. पठाण, मधुराज पब्लिकेशन्स, प्रथम आवृत्ती 1992
- सार्थ ज्ञानेश्वरी – संपादक शं. वा. दांडेकर, प्रसाद प्रकाशन, तिसरी आवृत्ती 1962
- ज्ञानेश्वरी सांकेतिक शब्द दर्शन – पांडुरंग दत्तात्रय देशपांडे, उत्कर्ष प्रकाशन
जानकारी अच्छी लगी हो शेयर करें।कोई त्रुटि हो तो कमेंट बॉक्स में हमें अपडेट करें.